दुनिया के तमाम हिस्सों में आज मदर टेरेसा के प्रति कृतज्ञता अर्पित करने के लिए उनकी जयंती मनाई जा रही है। कहने को तो मदर एक सहज-सरल नन थीं, मगर विश्वास और करुणा उनके व्यक्तित्व के ऐसे पहलू थे, जिनके सहारे वह दुनिया भर के लाखों परित्यक्त, बेघर और दीन-हीन लोगों को भूख, निराशा व अकेलेपन से बाहर निकालने में सफल रहीं। इस विश्व-व्यापी मिशन में उन्होंने लोगों की जाति, धर्म, आस्था या संप्रदाय को कभी आड़े नहीं आने दिया। मदर टेरेसा के साथ मैं करीब 23 वर्षों तक जुड़ा रहा। वह ऐसी बहुआयामी व्यक्तित्व वाली महिला थीं, जो एक ही वक्त में सरल दिखती थीं और जटिल भी। वह अपने उद्देश्य में इसलिए भी सफल हो सकीं, क्योंकि वह हर शख्स में अपने ईश्वर की छवि देखती थीं। चाहे कलकत्ता की गली में छोड़े गए बच्चे की देखभाल हो, लंदन के वाटरलू ब्रिज के नीचे जाड़े की सर्द रात में कार्डबोर्ड के एक बॉक्स में नींद लेता बेघर गरीब हो या मदर टेरेसा आश्रम से आने वाले गरमा-गरम भोजन के इंतजार में वेटिकन स्क्वॉयर पर पंक्तियों में खामोशी से खड़े भूखे लोग, ये सभी काम इसलिए संभव हो सके, क्योंकि मदर टेरेसा का विश्वास था कि ऐसा करके वह अपने ईश्वर की सेवा कर रही हैं। भले ही कभी-कभार मदर टेरेसा को ‘रिलिजियस इम्पिरीयलिस्ट’ यानी अपने धर्म को थोपने वाली बताया गया हो या संत के रूप में सम्मान दिया जाता हो, पर कई मायनों में वह अत्यंत सामान्य महिला थीं। यह अलग बात है कि इस सबके बावजूद उनका जीवन असाधारण रहा। आस्था और विश्वास उनकी ताकत थे और इसी के सहारे उन्होंने एक छोटा सा कदम बढ़ाया, जो 1997 में उनके देहांत के वक्त तक दुनिया भर में फैल चुका था। यह कदम था मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना। तब तक यह 123 देशों में काम करने वाली संस्था बन चुकी थी, जो बेघर, परित्यक्त और भूखे लोगों की सेवा में जुटी थी। मैंने मदर टेरेसा के जीवन में ऐसे कई रहस्य देखे, जिनको सुलझाना आसान नहीं। मसलन, वह शैक्षिक पठन-पाठन में शायद ही रहीं। कभी यूनिवर्सिटी नहीं गईं और उनका अध्ययन भी काफी हद तक धार्मिक किताबों तक सीमित था। फिर भी उन्होंने सैकड़ों स्कूलों की स्थापना की, जिसने तमाम बेसहारा बच्चों को काबिल बनाया। फीडिंग सेंटर और सूप किचन जैसे प्रयास बेघरों को सुरक्षा देने वाले थे, तो सड़कों पर छोड़ दिए गए नवजात बच्चों को शिशु भवन में जीवन मिला। ऐसा भी नहीं कि ये सारे काम दुनिया के गरीब हिस्सों में ही हुए। समृद्ध पश्चिम में बने ऐसे केंद्रों में पहुंचने वाले अकेलेपन व निराशा के शिकार लोग भी कम नहीं थे। पश्चिम बंगाल के दिग्गज मुख्यमंत्री बीसी राय ने उन्हें सबसे पहले सम्मानित किया था, फिर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सन 1962 में पद्मश्री देकर उनके योगदान की सराहना की। बाद के दिनों में पश्चिम बंगाल के ही दूसरे प्रसिद्ध मुख्यमंत्री ज्योति बसु का उन्हें पूरा सहयोग मिला। एक बार मैंने ज्योति बाबू से पूछा था कि वह वामपंथी व नास्तिक हैं और मदर के लिए ईश्वर ही सब कुछ, तो फिर उनमें और टेरेसा में आखिर समान क्या है? हल्की मुस्कान के साथ उनका कहना था, ‘हम दोनों गरीबों को प्यार देते हैं’। मदर टेरेसा भी बसु का नाम लेने से पहले ‘माई फ्रेंड’ कहना नहीं भूलती थीं। मदर पर आरोप लगे कि वह कुछ संदिग्ध लोगों से पैसे लेती हैं। उनका जवाब गौर करने लायक था। उनका कहना था, ‘मैंने किसी को पैसे देने के लिए नहीं कहा। न मैं वेतन लेती हूं, न सरकारी मदद और न ही चर्च का सहयोग। लेकिन किसी को भी मुझे देने का अधिकार है। मैं किसी को आंक नहीं सकती। यह अधिकार तो सिर्फ ईश्वर को है।’ मिशनरीज ऑफ चैरिटी संभवत: अकेली ऐसी धर्मार्थ संस्था है, जो किसी तरह की धन उगाही नहीं करती। धर्म परिवर्तन के आरोप लगने पर उन्होंने मुझसे कहा था, ‘मैं परिवर्तन करती हूं, पर यह परिवर्तन आपको एक बेहतर हिंदू या मुसलमान या बौद्ध या प्रोटेस्टेंट बनाना है। और जब आप ईश्वर को पा लेते हैं, तो यह आप पर निर्भर है कि आप क्या बनना चाहते हैं?’ वाकई, ऐसी दृष्टि रखने वाली शख्सियत का फिर से जन्म दुर्लभ है।